
कुछ इस तरह आया है ये अनजान कहर
की पंछी बोले अब उड़ सकेंगे हम भी हर पहर।
इंसानो के कुचक्र को भेदा है किसी अनजाने रूह ने,
तिलमिला उठे है अब सारे इंसान।
पिंजरों की जागीर समझा करते थे वो हमें
और आज उसी पिंजरों में क़ैद देख खुशी है मुझे।
हर किसी को भेदा है इन्होंने जिन्हें यह देख सके
और आज खुद ही भेद जाने पर अपने ही चक्रव्यूह मे फसे हैं ये।
जाती दुश्मनी नहीं किसी से हमारी पर आपस मे रहने का हक हमारा भी है।
इस धरती पर जिस तरह बर्बाद किया है इन्होंने हमारा घर,
शुक्र है इस अनजान क़हर का जिसने थाम लिया यह चक्र।
अब कैसा लग रहा है खुद को पिंजरों में बैठा देख
और पिंजरों में रहने वालों को उड़ता देख।
कोई हाथ नहीं हमारा तुम्हारी इस बढ़ती पीड़ा में
और दुआ करते कि अब भी वक्त है सुधर जाओ अपनी इन जालिम हरकतों से।
पर्यावरण भी शुक्रगुजार है इस अनजान क़हर का
और साथ मे दुख भी हैं कई बेगुनाहों के चले जाने का।
ऐ अनजान क़हर अब थम जा ,रुक जा बहुत हुआ अब
और एक आखिरी मौका दे इन ज़ालिम इंसानो को।
फरक पढ़ने से रहा यह तो मालूम है मुझे फिर भी
उम्मीद अभी जिंदा है और
उम्मीद पर ही तो दुनिया क़ायम है।
🙂🤔🤔
LikeLiked by 1 person
👏
LikeLiked by 2 people
Very True… People has used the nature now its time to payback.
LikeLiked by 1 person