
सुबह होती है,शाम होती है, दिन ढलते देर नहीं होती है।
सुबह से लेकर शाम, पंख लगाये पैरों मैं वो खुदको उड़ते दिखती है।
ढलते सूरज की सुस्त शाम के साथ, कुछ देर फिर वो रुकती है।
कुछ पल चुराकर ढलते पहरों से, अक्स देख इठलाती है।
फिर अचानक न जाने किन ख़यालों मैं वो खो जाती है।
रुकने का अब वक्त नहीं कहकर, पंख लगाये पैरों मैं वो उड़ जाती है।
पैरों के पंख उससे कहते हैं, अब नहीं और वो उड़ सकते हैं।
थकान से भरी वो फिर, मखमली बिस्तर पर गिर जाती है।
चाँद उसे फिर कहता है, हम रात सुहानी लाये हैं।
तेरी सुबह से लेकर शाम की, थकान मिटाने नींद की चादर लाए हैं।
इस पहर वो खुदसे बातें करती है, सुबह होती है शाम होती है,
दिन ढलते देर कहाँ होती है, यही बस वो सोचा करती है।
चाँद का तकिया लिए सितारों की चादर ओड़े,
ख़यालों के पुलिन्दों से भरी ना जाने कब वो सो जाती है।
सुबह होते ही आँखें मलते फिर उठ खड़ी हो जाती है।
पंख लगाये पैरों मैं फिर कहीं वो उड़ जाती है।
-Anuneel
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बहुत सुन्दर..
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maulik, behtrin
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😊अति सुंदर बोल, यह बचपन को भी सांझा करते हैं ❤️❤️
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तपती दोपहरी में वो घूरता हुआ सूरज…
चांद के चक्कर में सूरज ख़ुद को खाक किये बैठा हैं..
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वाह क्या बात है😊
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बहुत ही सुंदर ।
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